अष्टावक्र गीता
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अध्याय ३
अविनाशिनमात्मानमेकं विज्ञाय तत्त्वतः।
तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ॥१॥
जनक जी के अनुभव की परीक्षा करते हुए अष्टावक्र जी कहते हैं कि निश्चित रूप से आत्मा को अविनाशी और अखंड मानकर भी साधारण विवेकी तत्त्वज्ञ आत्म-ज्ञानी भी सांसारिक व्यवहार में धन-दौलत का लोभी क्यों हो जाता है ॥१॥
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आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषय भ्रमगोचरे।
शक्तेर ज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे ॥२॥
(इस प्रश्न का उत्तर स्वयं गुरुमुख से सुनने की इच्छा से जनक जी जब जानना चाहते हैं कि आत्म-ज्ञानी के धनादिक संग्रह में क्या दोष है? तो) शिष्य के प्रश्न का समाधान करते हुए गुरुवर उत्तर देते हैं कि जिस प्रकार सीपी के रंग रूप, आकार-प्रकार से अनभिज्ञ मनुष्य सीपी को चाँदी समझकर उसे पाने का लोभ करता है, वैसे ही आत्म-ज्ञान से अनभिज्ञ व्यक्ति संसारी विषय भोग के प्रति आकर्षित होता है। इस आकर्षण का कारण अज्ञान ही है ॥२॥
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विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे ।
सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि ॥३॥
जिस प्रकार सागर में तरंगै उठती हैं और तरंगे सागर से भिन्न नहीं हैं, ऐसे ही यह विश्व विश्वात्मा रूपी सागर) की तरंगों के समान है । उन तरंगों को अपनी मानकर अभिमानी पुरुष अहंकार करता है और उन्हें अपनी झोली में भर लेने की, दीन-हीन भिखारी की भाँति व्यर्थ की दौड़-धूप करता है। (आत्म-साक्षात्कार कर लेनेवाला विषयों की तरफ नहीं दौड़ता) ॥३॥
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श्रुत्वापि शुद्धचैतन्यमात्मानमति सुन्दरम्।
उपस्थे ऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ॥४॥
आत्मा को शुद्ध चैतन्य मनोहारी रूप और स्वभाव के सम्बन्ध में श्रुति वाक्य सुनकर भी सहज-सुलभ होने वाले विषय-भोगों में आसक्त होकर उनके पीछे भागनेवाला आत्मज्ञ व्यक्ति मूर्ख बनता है। (वह ऐसा कैसे बनता है, यह बड़े आश्चर्य की बात है।) ॥४॥
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सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
मुनेर्जानत आश्चर्य ममत्वमनुवर्ते ॥५॥
समस्त प्राणियों में आत्मा विद्यमान है और समस्त प्राणी आत्मा में अवस्थित हैं जानकर भी अनेक मुनियों का मन भी माया-ममता से लिपटने के लिए आतुर होता है, यह सचमुच बड़ा आश्चर्य है ॥५॥
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आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थे ऽपि व्यवस्थितः ।
आश्चर्य कामवशगो विकल: केलिशिक्षया ॥६॥
यह भी बड़ा आश्चर्य है कि परम सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म में पूर्ण आस्था रखनेवाला तथा मुक्ति मार्ग पर पूर्ण विश्वास के साथ चलनेवाला मनुष्य कैसे नाना प्रकार के भोग- विलासों में फँसकर अति व्याकुल हो जाता है? ॥६॥
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उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रमवधार्यातिदुर्बलः ।
आश्चर्य काममाकांक्षेत्कालमंतमनुश्रितः ॥७॥
विषय-वासना की लोलुपता ज्ञान-मार्ग के पथिक की परम शत्रु है। यह जानकर भी मनुष्य कैसे अधीर और हीन होकर भोग-विलास का शिकार होकर काल का ग्रास हो जाता है, यह भी परम आश्चर्य की बात है ॥७॥
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विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः ।
इहामुत्र अश्चर्य मोक्षकामस्य मोक्षादेव बिभीषिका ॥८॥
आश्चर्य यह भी है कि सर्वथाः विरक्त, संसारी यही भोग-विलास से अनासक्त और आत्मा की नित्यता एवं जगत की अनित्यता को जाननेवाला मोक्षाभिलाषी व्यक्ति भी कैसे स्त्री-पुत्रादि के वियोग से भयभीत और शोकातुर हो जाता है ॥८॥
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धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीङ्यमानोऽपि सर्वदा।
आत्मानं केवलं पश्यन्नतुष्यति न कुप्यति ॥९॥
यथार्थ में ज्ञानी तो वही व्यक्ति है, जो नाना प्रकार के भोग-विलासों के प्रलोभनों में भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होता और पाप में डूबे लोगों से पीड़ित होने पर भी उन पर क्रोध नहीं करता; हर्ष-शोक में, सुख-दुःख में एक रस रहता है (यदि ज्ञानी में भी तोष और रोष रहे, तो बड़ा आश्चर्य है।)॥९॥
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चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् ।
संस्तवे चापि निन्दायां कथ क्षुभ्येत्महाशयः ॥१०॥
ज्ञानी वह है, जो निरंन्तर अपने मनचाहे काम करनेवाले शरीर से भी अपनी आत्मा से अलग अनुभव करता है, मानो वह शरीर उसका अपना नहीं, किसी दूसरे का है। ऐसा देहाभिमान रहित व्यक्ति हर्ष-शोक या स्तुति-निन्दा से कैसे व्यक्त होगा? ॥१०॥
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मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन्विगतकौतुकः।
अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः ॥११॥
सम्पूर्ण विश्व मायामय है, मिथ्या प्रतीति है, यह अनुभव करनेवाला और समस्त उत्कठाओ से रहित स्थित प्रज्ञ मनुष्य मृत्युकाल के बहुत समीपे आने पर भी मृत्यु से भयभीत नहीं हो सकता ॥ ११॥
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निस्पहं मानसं यस्य नैराश्ये ऽपि महात्मनः ।
तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते ॥१२॥
सामान्य रूप से लोगों की दृष्टि से जो स्थिति सर्वथा निराशापूर्ण होती है, उसमें भी पूर्णतया तृप्त और निस्पृह रहनेवाले आत्मज्ञानी मनुष्य की तुलना किसी से नहीं की जा सकती। इस ऊँचाई की अवस्था तक कोई बिरला ही पहुँचता है। (ऐसे व्यक्ति के सब मनोरथ समाप्त हो चुके हैं। और वह अपनी आत्मा के आनन्द से ही तृप्त रहता है।)॥१२॥
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स्वभावादेव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।
इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः ॥१३॥
जिसे सहज ही यह प्रतीति हो जाए कि यह दृश्यमान जगत कल्पित है, असत् है, ऐसा स्थित प्रज्ञ कभी इस दुविधा में नहीं पड़ता कि किस वस्तु का परित्याग किया जाए या किसको ग्रहण किया जाए। उसकी दृष्टि में सबकुछ अस्तित्वहीन हो जाता है, मानो वह सबकुछ कहीं है ही नहीं ॥१३॥
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अन्तस्त्यक्तकशयस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिष।
यदूच्छया गतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये ॥१४॥
अन्तःकरण के राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारों और शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों से सर्वथा दूर तथा विषय मात्र की वासना से रहित ज्ञानी मनुष्य को संसारी भोग सहज प्राप्त होते हैं। वे उसे न तो अति प्रसन्न करते हैं और न अति दुःखी। वह उनका सेवन करता हुआ भी उनसे अलिप्त रहता है ॥१४॥
Credit - Ashtavakra Gita in Hindi by Dipak Chauhan
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