अष्टावक्र गीता
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अध्याय 4
गुरु अष्टावक्र द्वारा ज्ञानियों के विषय में जो कुछ कहा गया, उसके उत्तर में जनक जी कहते हैं।
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।
न हि संसारवाहीकैमूढै: सह समानता॥१॥
दैवयोग से प्राप्त भोग्य पदार्थों को सुख-सन्तोष से भोगना ही आत्म-ज्ञानी विवेकशील मनुष्यों का स्वभाव बन जाता है। भोग-विलास में लिप्त मूर्ख मनुष्यों की भोग-लीला से उनकी तुलना नहीं की जा सकती। (प्रारब्ध कर्म के भोग में कष्ट होने पर भी ज्ञानी धीरता से क्लेश सह लेता है, जबकि अज्ञानी मुर्ख अधीरता के कारण क्लेश भी असहनीय बना लेता है।) ॥१॥
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यत पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्व देवताः।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्ष मुपगच्छति ॥२॥॥
अत्यन्त ऐश्वर्यशाली इन्द्रादि देवता भी जिस व्यावहारिक आत्म-प्रधान जीवन पाने में असमर्थ होकर निराश हो जाते हैं, उस उच्चस्तरीय जीवन को पाकर भी ज्ञानी अत्यधिक सुखी होने का अभिमान कदापि नहीं करता है ॥२॥ (उसके लिए आत्मसुख से बड़ा कोई सुख नहीं होता, जो उसे नित्य प्राप्त होता है ।)
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तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्नजायते ।
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि संगतिः ॥ ३॥
आत्म-ज्ञानी व्यक्ति जीवन में पुण्य-पाप की राह में गुज़रता हुआ भी ठीक उसी तरह उनसे लिप्त नहीं होता, जैसे धुएँ से आच्छादित होने पर भी धुआँ कभी आकाश का अंग नहीं बनता। आकाश स्वच्छ ही रहता है और धुएँ से अन्ततः असंग रहता है। (जैसे ही आत्म-ज्ञानी का पाप-पुण्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता।)॥३॥
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आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत क: ॥४॥।
समस्त जगत वस्तुतः आत्म-तत्त्व प्रधान है और बाह्य रूप मिथ्या प्रतीति मात्र है, यह जानने के बाद आत्म-ज्ञानी जो कुछ करता है, वह सब अन्तःकरण की स्वतः प्रेरणा से करता है। उसके कार्यों से बाहर के विधि-निषेध बाधक नहीं बन सकते ॥४॥
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आब्रह्मस्तम्बपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।
विज्ञस्यैव हि सामर्थ्यमिच्छानिच्छाविवर्जने ॥५॥
ब्रह्मा से तृण पर्यन्त सब प्रकार के प्राणियों से भरे हुए संसार के सब काम किसी अदृश्य शक्ति द्वारा संचालित हो रहे हैं, किसी की इच्छा या अनिच्छा से नहीं । इच्छा और अनिच्छा का विसर्जन आत्म-ज्ञानी पुरुष ही कर सकता है। अतः वही सुखी है, क्योंकि उसे न तो कोई इच्छा है, न अनिच्छा ॥५॥
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आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानति जगदीश्वरम्।
यद्वेत्ति तत् स करूते न भयं तस्य कुत्राचित् ॥६॥
आत्म-ज्ञानी ही (द्वैत-भाव के न होने के कारण) सबसे अधिक निर्भय रहता है, किन्तु अद्वितीय आत्म-स्वरूप जगदीश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान विरले महात्मा को ही होता है। वह जो कुछ करता है, सत्य से ही प्रेरित होकर करता है। ये कार्य वह निर्भय होकर करता है, स्वार्थ अथवा लोकापवाद के भय से कतई नहीं । अतः वही सच्चे अर्थों से सत्कर्म करता है ॥६॥
Credit - Ashtavakra Gita in Hindi by Dipak Chauhan
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