अष्टावक्र गीता
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अध्याय 1
राजा जनक ने ब्रह्म-ज्ञान में पारंगत ऋषिवर अष्टावक्र से प्रश्न किया
कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति ।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो ॥१॥
गुरुवर, कृपया यह बतलाइए कि वह ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ है, जिससे मुक्ति मिले? और यह भी कि वैराग्य की साधना कैसे पूर्ण होगी? ।।१ ।।
विशेष : राजा जानना चाहते थे वैराग्य का स्वरूप, उसके कारण और फल क्या हैं, ज्ञान का स्वरूप, उसका कारण और फल क्या है तथा वृद्धि का स्वरूप उसका कारण और उसके भेद क्या हैं, यह ऋषिवर सविस्तार बतावें। ऋषिवर ने राजा को यथार्थ जिज्ञासु समझकर आत्म-विद्या प्राप्त करने का पूर्ण अधिकारी माना। साधनों से ही आत्म-विद्या प्राप्त होती है, इसलिए उत्तर में वे साधनों का कथन करते हैं।
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मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद्भज ॥२॥
राजन मुक्ति चाहते हो, तो पहले सब प्रकार के सांसारिक विषय-भोगों को विष मानकर उनको सर्वथा परित्याग करना होगा| (क्योकि विषयों के भोगने से प्राणी संसार-चक्र रूपी मृत्यु को ही प्राप्त होता है।) और पाँच सद्गुणों को अपने विचारों और कार्यों में अमृत के समान धारण करना होगा। ये पाँच सद्गुण है - क्षमा, दया, सरलता, संतोष और सत्य ।२ ।।
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प्थश्वी न जलं नाग्रिर्न वायुद्यौर्न वा भवान् ।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥३ ॥
राजन! आप विश्व व्याप्त दिव्य चेतना के ही अंश हैं| अजर अमर नित्य चैतन्य आत्मा है, यही आपका सच्चा स्वरूप है। आप न पृथ्वी हैं न जल, न अग्नि, न वायु और न ही आकाश हैं। इन पंच भूतों से अलग केवल इनके साक्षीभूत स्वतः ज्ञानमय आत्मा है, जड़ पंच भूतों के अंश नहीं|
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यदि देहं पूथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि ।
अधुनैव सुखी शांतो बंधुमुक्तो भविष्यसि ॥४॥
(मुक्ति के स्वरूप तथा उसे प्राप्त करने के उपाय बताते हुए ऋषिवर कहते हैं) इन पंच भूतों से आपकी देह ही बनी है, आत्मा इनसे पृथक है। आत्मा को देह से पृथक मानकर जिस समय आप अपने विशुद्ध चैतन्य रूप में मन को स्थिर करोगे, उसी समय परम शान्ति और सुख का अनुभव होगा; आपको जीवन मुक्त होने की प्रतीति होगी, मोक्ष-प्राप्ति का साक्षात् अनुभव हो जाएगा और दुःखों से स्वतः मुक्ति मिल जाएगी ।।४ ।।
विशेष : जब प्राणी आत्म-ज्ञान होने पर स्वयं को अकर्ता, उपभोक्ता, शुद्ध और असंग मानता है, तभी अध्यास का नाश हो जाता है। अध्यास का नाश ही मुक्ति है।
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ऋषिवर के इन गूढ़ वचनो को सुनकर राजा जनक के मन में अनेक संशय पैदा हुए। मन ने कहा कि आप विशेष वर्ण और विशेष आश्रम में रहते हुए कर्तव्य-कर्मों के सामाजिक बंधनो से बंधे हुए हो, इनसे मुक्ति कैसे मिलेगी? ऋषिवर ने इन संशयों को निवारण करते हुए कहा
न त्वं विप्रादिको वर्णो, नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो, विश्वसाक्षी सुखी भव ॥५॥
यदि आप सचमुच आत्म-ज्ञान के जिज्ञासु और ब्रह्म-ज्ञान-पथ के पथिक हैं, तो यह जानना अनिवार्य है कि आपकी आत्मा न तो विप्रादि किसी वर्ण की है और न ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि किसी आश्रम के बन्धन में बँधी है । वह आँखों से प्रत्यक्ष दिखनेवाले प्रत्येक विषय और बन्धन से मुक्त है, असंग है, निराकर है। वह तो इस दृश्यमान विश्व क इन सब रूपों का साक्षी मात्र है। इनमें लिप्त नहीं है। यह जान-समझ लेने पर आप सदा सुखी रहेंगे ।।५।।
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धर्माऽधर्मौं सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्तएवासि सर्वदा ।॥|६॥
अष्टावक्र जी आगे कहते हैं कि हे राजन! संसारी धर्म-अधर्म सुख-दुःख सभी आपके मन के मिथ्या संकल्प का परिणाम हैं। विधि-निषेध के ये रूप अस्थायी हैं, परिवर्तनशील हैं। आत्मा न तो कर्ता है और न भोक्ता है, वह तो सदा-सर्वदा इनमें मुक्त रहता है। यही उसका सच्चा स्वभाव है ।।६।।
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एको द्ष्टाऽसि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा ।
अयमेव हि ते बन्धो उद्रष्टारं पश्यसीतरम् ॥७॥
मन में यह धारणा स्थिर कर लो कि आप तो आत्मा हैं, देह नहीं हैं। आत्मा तो मात्र दृष्टा है, साक्षी मात्र है; कर्म का कर्ता नहीं है। वह स्वभाव से मुक्त ही है। इस दृष्टा को कर्ता या भोक्ता रूप में देखने की इच्छा करना ही अज्ञान है और यह अज्ञान ही बंधन का कारण बन जाता है। (अज्ञानी लोग ही मानते हैं कि अपने से भिन्न कोई दृष्टा है और कर्मों का फल प्रदाता है। ज्ञानवान ऐसा नहीं मानते) ।।७।।
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अहं कतर्तात्यहंमानमहाकृष्णाहिदंसितः ।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखीभव ॥८॥
मै कर्ता हूँ, यह अहं भाव, अहंकार रूपी महाकाल सर्प का विष मुक्त के शरीर में प्रवेश कर लेता है (और सारा संसार जन्म-मरण रूपी चक्र में पड़कर भटकता रहता है)। मैं कर्ता या भोक्ता नहीं हूँ - इस विश्वास का अमृत पीकर ही मनुष्य सुखी हो सकता है। आप भी इस पर श्रद्धा रखकर सुखी जीवन बिता सकते हैं ।।८ ।।
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एको विशुद्धबोधोऽहमिति निश्चयवह्निना ।
प्रज्वाल्याज्ञानगहन वीतशीकः सुखीभव ॥९॥
अष्टावक्र जी स्पष्ट करते हैं कि मैं विशुद्ध ज्ञान-स्वरूप इस दिव्य विश्वास और ज्ञान की पवित्र अग्नि की तीव्र ज्वाला में देह-भाव का अज्ञान स्वयं ही भस्म हो जाएगा और तत्वतः प्रकाशित चेतना से परम सुख की प्राप्ति स्वयं हो जाएगी ॥९॥
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यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनन्दपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर ॥१o॥
जिस प्रकार अज्ञानवश रस्सी में सर्प की प्रतीति होने से भय की उत्पत्ति होती है और सच्चाई जान लेने के बाद अज्ञान-जनित भय की स्वयं निवृत्ति हो जाती है, उसी प्रकार जगत की असत्यता जान लेने पर सभी दुःख स्वयं दूर हो जाते हैं। राजन! आप भी सत्य का बोध करके आनन्द-परमानन्द की प्राप्ति कीजिए ॥१०॥
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मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किंवदंतीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत् ॥ ११॥
जिस व्यक्ति को यह निश्चय हो जाता है कि 'मैं मुक्त रूप हूँ।" वही मुक्त हो जाता है और जो समझता है कि मैं अल्पज्ञ जीव 'संसार बन्धन में अनिवार्य रूप से बँधा हूँ, वह बँधा रहता है। जैसी मति, वैसी ही गति होती है यह लोकप्रिय किंवदन्ती सत्य ही है ॥११॥ (बंधन और मोक्ष ये सब मन के धर्म हैं। मुझमें ये सब तीनों में नहीं हैं, किन्तु मैं सबका साक्षी हूँ, ऐसा दृढ़ निश्चयवाला ही नित्य मुक्त है)
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बंधन और मोक्ष वास्तविक हैं या अवास्तविक? यदि बंधन वास्तविक है तब उसकी निवृत्ति कैसे संभव है और यदि मोक्ष वास्तविक है, तो जीव को बन्धन ग्रस्त कभी नहीं होना चाहिए, इस शंका की पूर्व कल्पना करते हुए अष्टावक्रजी आगे कहते हैं।
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्ताश्चिदक्रियः।
असंगोनिःस्ष्टहः शांतो भ्रमात्संसारवानिव ॥१२॥
आत्मा स्वभाव से ही विभु (सर्व का अधिष्ठान) है, सर्वत्रव्याप्त है, कर्म-बंधन से मुक्त है, विषय-वृत्ति से असंग है, आत्मा निस्पृह (विषयों की अभिलाषा से रहित) है, प्रवृत्ति निवृत्ति रहित है और सदा शान्त है। आत्मा का संसारी रूप केवल भ्रम है, जो अज्ञान से पैदा होता है ॥१२॥(ज्ञान की स्थिति बनाए रखने के लिए श्रवण-मनन आदि की आवृत्ति बार-बार करनी चाहिए। महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को 'तत्त्वमसि' महावाक्य का नौ बार उपदेश किया था।)
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कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय।
अभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥१३॥
इसी कारण जनक जी को आत्मज्ञान का उपदेश पुनः-पुनः करते हुए अष्टावक्र जी कहते हैं, "मुमुक्षु मनुष्य को इसी विचार से दृढ़ होना चाहिए कि आत्मा निर्विकार है, ज्ञान स्वरूप है, अद्वैत है, अखंड है। बाह्य और आन्तरिक रूपों में भेद की भावना और उससे पैदा हुए भ्रम का परित्याग करना ही उचित है ॥१३॥
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देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखङ्गेन तंनिष्कृत्य सुखी भव ॥ १४॥
देहादि अभिमान दूर करने की जनक जी की प्रार्थना पर ऋषि अष्टावक्र राजा जनक को कहते हैं कि हे शिष्य, तुम चिरकाल से इसी देहाभिमान रूपी जाल में फँसे हुए हो। इस जाल को अपनी ज्ञान रूपी तलवार से काट दो कि मैं बोध रूप अखंड परिपूर्ण आत्मा हूँ, तभी तुम सच्चे सुख से अधिकारी बनोगे ॥१४॥
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जनकजी ने जब पतंजलि द्वारा 'चित्त-वृत्ति-निरोध-योग को बंधन मुक्ति का हेतु' बताए जाने की बात उठाई तो अष्टावक्र जी ने कहा है।
निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः ।
अयमेव ही ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठिसि ॥१५॥
शिष्यवर, तुम वस्तुतः निःसंग, क्रिया रहित, प्रकाशित और निर्मल निर्विकार हो। समाधि की अभिलाषा और मोक्ष के लिए समाधि अनुष्ठान करने की उत्कठा ही तुम्हारे बंधन का कारण बन गई है ॥१५॥ (आत्मा के स्वरूप-ज्ञान के अतिरिक्त मुक्ति के जितने उपाय बताए गए हैं, वे सभी बंधन के कारण हैं।)
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त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः
शुद्धबुद्धस्वरूपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम् ॥ १६॥
शिष्यवर, यथार्थ में यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत तुझ में व्याप्त है (जैसे माला के सूत्र में मनके पिरोए रहते हैं) और तुझमें ही ओत-प्रोत है। तुम स्वयं शुद्ध बुद्धि स्परूप हो । अपने को विश्व के प्रपंच का अंग मानकर अपनी चित्तवृत्ति को विपरीत मत करो। (वास्तव में जगत की अपनी सत्ता कुछ भी नहीं है, तेरे संकल्प से यह जगत उत्पन्न हुआ है और तेरे संकल्प में निवृत्त होने से यह जगत भी निवृत्त हो जाएगा। अतः अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित होकर क्षुद्रता को प्राप्त मत हो।) ॥१६॥
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निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्ध्यो भव चिन्मात्रवासनः ॥१७॥
हे शिष्य तुम आत्मरूप होने से निरपेक्ष हो (अर्थात्, भूख, प्यास, शोक, मोह, जन्म-मरण, षट् ऊर्मियों से रहित हो । इनमे भूख प्यास, प्राण के शोक-मोह मन के और जन्म-मरण सूक्ष्म देह के धर्म हैं। ये कोई भी धर्म तुझ आत्मा के नहीं हैं।) तुम स्वतंत्र हो, निर्विकार हो, क्षोभ रहित हो, सदा शान्त हो तुम्हारा विशुद्ध चैतन्य रूप ही अपना सच्चा स्वरूप है ॥१७॥
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साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलम्।
एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसम्भवः ॥१८॥
आवागमन से मुक्त होने की ओर संकेत करते हुए ऋषि अष्टावक्र कहते हैं कि हे राजन! जो साकार शरीर दिखलाई देता है, वह मिथ्या कल्पित है। आत्म-तत्त्व तो नित्य, निराकार और निश्छल ही रहता है, सभी शास्त्र इस तत्त्वज्ञान की शिक्षा देते हैं। इसे जान लेने और इस पर पूर्ण श्रद्धा रखने से ही तुम जन्म-मरण (संसार में आवागमन) के बंधन से मुक्त बनोगे ॥१८॥
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यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः ।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः ॥१९॥
जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है, तो एक ही व्यक्ति के दो रूप दिखाई देते हैं। (प्रतिबिम्ब दर्पण में देखने मात्र का है किन्तु वह दर्पण के सत्यवत दिखता है)। उसी प्रकार एक ही आत्म-तत्व के प्रतिबिम्ब से देहस्थ और विश्व व्याप्त एक ही आत्मा के दो रूप दिखाई देते हैं।॥१९॥
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एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥२०॥
जिस प्रकार सर्वगत एक ही आकाश संसार के घटादि पदार्थों में बँटा हुआ दिखलाई देता है, उसी तरह आत्म तत्त्व (अखंड अविनाशी ब्रह्म) संपूर्ण प्राणियों में भूतों में अलग-अलग बाहर, भीतर और मध्य में विभाजित दिखलाई देता है। वस्तुतः वह अखण्ड है, नित्य है और अद्वितीय है ॥२०॥
Credit - Ashtavakra Gita in Hindi by Dipak Chauhan
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