अष्टावक्र गीता l हिंदी l Ashtavakra Gita in Hindi l अध्याय 2

 

अष्टावक्र गीता

अष्टावक्र गीता l Ashtavakra Gita
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अध्याय 2

ऋषिवर अष्टावक्र के उपदेश के अनुसार चेतन-स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार करके राजा जनक अपने पूर्व प्रतीत मोह का स्मरण आश्चर्य के साथ कहते हैं। 
अब मुझे यह ज्ञान हो गया है कि गुरुवर! मैं अपने सत्य स्वरूप में निराकार, सब उपाधियों से रहित सदा शान्त और विशुद्ध ज्ञान स्वरूप हूँ।

अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृते: परः ।
एतावन्तमहं कालं मोहेनैव विडंबितः ॥१॥

इसलिए प्रकृति से, माया भ्रम से दूर हूँ। आज तक मैं मोह जाल की मिथ्या विडम्बना में फँसा हुआ था। अब मैं उससे मुक्त अनुभव करता हूँ॥१॥

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यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनं तथा जगत् ।
अतो मम जगत्सर्वमथवा न च किंचन ॥२॥

जैसे मैं एक देह को प्रभावित करता हूँ, उसे चैतन्यता प्रदान करता हूँ। उसी प्रकार समस्त जगत को प्रकाशित करके गतिशील बनाता हूँ। देह जैसे स्वयं जड़ है, वैसे ही जगत भी जड़ है। देह से माया-ममता का बंधन टूटा, तो समस्त जगत से नाता टूट गया। यदि ये देह मेरा है, तो सारा संसार मेरा है; नहीं तो कोई भी अपना नहीं है। आत्मा तो इन दोनों से अलग है ॥२॥

विशेष : 'अस्ति' (है), 'भाति' (मान) और प्रियम् (प्रिय) ये तीनों अंश ब्रह्म के हैं और सारे जगत में व्याप्त हैं। 'नाम' और 'रूप' ये दो अंश जड़-जगत के हैं। नाम और रूप विनाशी हैं, क्योंकि कभी एक हालत में नहीं रहते यह जगत अस्ति, भाति और प्रिय अंशों के कारण ही सत्यवत प्रतीत होता है। इसीलिए जनक जी कहते हैं कि यह दृश्य जगत मेरे देह बंधन की कल्पना का अंग है। मैं (आत्म-तत्त्व) माया और उसके कार्य से परे ज्ञान स्वरूप हूँ।

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सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽधुना ।
कुरतश्चित्कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते ।॥३॥

लिंग शरीर और कारण शरीर सहित सम्पूर्ण विश्व और आत्मा से पृथक अपनी सत्ता को मिथ्या मानकर अब मैं देह और जगत की ममता त्यागकर अपने ही अन्तज्ञान से परमात्मा का दर्शन करूँगा ॥३॥ (आत्म- ज्ञान अतिरिक्त आत्मा के अवलोकन का और कोई भी उपाय नहीं है।)

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यथा न तोयतो भिन्नास्तरङ्गाः फेनबुद्बुदाः।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥४॥

जिस प्रकार जल-प्रवाह में उठी तरंगें, बुलबुले और झाग आदि जल से भिन्न नहीं हैं, उसी प्रकार विश्वात्मा से ही उद्भूत सभी प्राणियों के देह विश्वात्मा से भिन्न नहीं हैं। त्रिगुणात्मक जगत आत्मा का ही अंग है, आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं है ॥४॥

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तंतुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारितः ।
आत्मतन्मात्रमेवेदं, तद्वद्विश्वं विचारितम् ॥५॥

जिस प्रकार वस्त्र अपने उपादान कारण सूत्र से भिन्न प्रतीत होता है, किन्तु होता सूत्र मात्र ही है, उसी तरह अज्ञान दृष्टि के कारण जगत ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। परंतु तत्त्वतः सम्पूर्ण जगत विश्वात्मा रूप ही है । जैसे वस्त्र में सूत्र व्याप्त है, उसी प्रकार जगत में ब्रह्म व्याप्त है ॥५॥

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यथैवक्षुरसे क्लुप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरंतरम् ॥६॥

जैसे इक्ष (गन्ने) में रस और शर्करा व्याप्त है और शर्करा में रस और गन्ना व्याप्त है, वैसे ही विश्वात्मा में समस्त विश्व और समस्त विश्व में विश्वात्मा व्याप्त है। इस प्रकार सब मुझमें और मैं सब में नित्य व्याप्त हूँ।॥६॥

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आत्माज्ञानाज्जगशति आत्माज्ञानान्न भासते ।
रज्ज्वज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाशसते न हि ॥७॥

आत्मा के स्वरूप का ज्ञान न होने से ही जगत की भिन्न प्रतीति होती है। यह प्रतीति उसी प्रकार मिथ्या है, जैसे अन्धकार में पड़ी रस्सी में साँप की प्रतीति होती है। ज्ञान-दीपक का प्रकाश होते ही पता लग जाता है कि वह प्रतीति मिथ्या थी ॥७॥

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प्रकाशो में निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः ।
यदाप्रकाशते विश्वं तदा हं भास एव हि ॥८॥

प्रकाश मेरा, आत्मा का निज रूप है, स्वाभाविक रूप है। उस प्रकाश से भिन्न आत्मा नहीं आत्म-चैतन्य ही सब जगत का प्रकाश है। आत्मा के प्रकाशित होने से अर्थात आत्मा के स्वरूप-ज्ञान से सब भ्रम स्वयं मिट जाते हैं। जगत की प्रतीति कराने वाला मिथ्यात्व भी नष्ट हो जाता है|॥८॥ 

विशेषः चेतन दो प्रकार का होता है - सामान्य और विशेष| सामान्य चेतन अज्ञान विरोधी नहीं, वरन् स्वतः विद्यमान रहकर उसका साधक है। किन्तु विशेष चैतन्य अज्ञान का विरोधी है, इससे चेतन का उदय ही संम्भव नहीं। यह चेतन ही विशेष चैतन्य बनकर प्रकाशित होता है |

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अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते।
रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा ॥९॥

जब तक आत्म-ज्ञान नहीं होता, तभी तक विश्व ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। यह प्रतीति वैसी ही मिथ्या है, जैसे सीपी में रजत की प्रतीति, रस्सी में सर्प की प्रतीति और मरुभूमि में सूर्य-किरणों से जल की प्रतीति। ये सब अज्ञान कल्पित आभास हैं। (आत्मा के स्वरूप प्रकाश से ही जगत प्रकाशमान हो रहा था, स्वतः जगत मिथ्या है)।॥९॥

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मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति ।
मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा ॥१०॥

यह मायाच्छादित, माया रहित विश्व विश्वात्मा की मेरी ही अभिव्यक्ति है, जो अन्ततः उसी में मुझ में ही लय हो जाएगा। उसी प्रकार जैसे मिट्ठी का घड़ा मिट्टी में, लहर नदी जल में और स्वर्णाभूषण स्वर्ण में लय हो जाते हैं ॥१०॥

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अहो अहं नमो मह्यं विनाशो सस्य नास्ति में ।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंतं जगन्नाशेऽपि तिष्ठतः ॥११॥

ब्रह्म मैं-सम्पूर्ण जगत का कारण हूँ और अविनाशी हूँ। इसलिए मैं अपने सत्य स्वरूप को नमस्कार करता हूँ। प्रलय काल में विराट ब्रह्मांड से लेकर एक तिनके तक सबका नाश हो जाता है, किन्तु ब्रह्म का मेरा नाश नहीं होता ॥११॥

विशेष : ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक है और जगत की प्रातिभासिक। ब्रह्म तीनों कालों में नित्य है और जगत तीनों कालों में अनित्य। जगत ब्रह्म का विवर्त् है। उसी से जगत के नाश होने पर भी ब्रह्म ज्यों-का-त्यों एकरस रहता है। वही ऐसा पारमार्थिक स्वरूप है।

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अहो अहं नमो मह्यमेकोऽहं देहवानपि।
कवचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः ॥१२॥

मैं अपने सत्य-शुद्ध स्वरूप को नमस्कार करता हूँ। नाना प्रकार के रूपों में निवास करने के उपरांत भी मैं अपने सत्य स्वरूप में एक रूप ही हूँ। उस एक रूप में मैं समस्त विश्व में व्याप्त हूँ, न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ ॥१२॥

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अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः।
असंस्पृष्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम् ॥ १३॥

मैं अपने सत्य स्वरूप को नमस्कार करता हूँ ब्रह्मरूप में मैं शरीर में रहकर भी शरीर से स्पर्श नहीं करता, असंग ही रहता हूँ। समस्त विश्व को धारण करते हुए भी मैं अपने सत्य स्वरूप में जगत में लीन नहीं होता। मेरी यह माया आश्चर्यजनक है, किंतु सत्य है ॥१३॥

विशेष : चुम्बक पत्थर स्वयं तो क्रिया रहित है, किंतु लोहे से चेष्टा कराता है। उसकी विलक्षण शक्ति से समान आत्मा में भी विलक्षण शक्ति है। वह स्वयं क्रिया-रहित है किन्तु शरीर, इन्द्रियादिक सभी अपने-अपने काम करते हैं। अग्नि अलग रहकर भी जमे हुए घी को पिघला देती है, वैसे ही आत्मा असंग रहकर भी सारे जगत् को क्रियावान कर देते हैं।

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अहो अहं नमो मह्यं यस्य में नास्ति किञ्चन ।
अथवा यस्य में सर्वं यद्वाङ्मनसगोचरम् ॥१४॥

अपने सत्य-स्वरूप को नमस्कार करता हूँ। परमार्थ दृष्टि से देखो तो मैं किसी से संलग्न नहीं। सांसारिक दृष्टि मेरा मन जिसे अपना समझता है, वाणी जिसे अपना कहती है, वह सब मन-वाणी का भ्रम ही है । सत्य यही है कि मेरा किसी पदार्थ से कोई लगाव नहीं ॥१४॥

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ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम्।
अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोहमस्मि निरञ्जनः ॥१५॥

ज्ञान, ज्ञेय तथा ज्ञाता इस त्रिपुटी से भी मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। अज्ञान वशात ये जो तीनों प्रतीत होते हैं, वे अवास्तविक हैं, अज्ञान जनित हैं। अपने सत्य रूप में मैं इस प्रपंच का कोई अंग नहीं हूँ। सबसे होते हुए भी, उनसे अलग निर्विकार रूप ही मेरा सत्य स्वरूप है ॥१५॥ 

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द्वैतमूलमहो दुःखं नान्यत्तस्यास्ति भेशजम।
दृश्यमेतन्मृषा सर्वं एकोऽहं चिद्रसो ऽमलः ॥ १६॥

सुख-दुःख की प्रतीति आत्मा है, यह द्वैत मानने से होती है। द्वैत भाव के कारण जो दुःख होता है, उसका कोई उपाय नहीं। दृश्यमान यह जगत मिथ्या है। आत्मा ही सत्य है, निराकार है, चिदमात्र और अद्वितीय है। जब ज्ञान-बोध हो जाएगा, तो उसी से दुःख का निवारण होगा, अन्यथा नहीं ॥१६॥

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बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया।
एवं विमृशतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम ॥१७॥

मैं ज्ञान रूप हूँ, चैतन्य रूप हूँ, अहंकारादि प्रपंच को मैंने उपाधि स्वरूप मान लिया है। वस्तुतः यह मिथ्या ज्ञान है। मेरी निर्विकल्प, नित्य एकरस स्थिति ही सत्य है, यह ज्ञानपूर्वक अनुभव होने के बाद ही ह्वैत ज्ञानजन्य दुःख का निवारण होगा ॥१७॥

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न मे बंधोऽस्ति मोक्षो वा भ्रांति: शान्ता निराश्रय।
अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम् ॥ १८॥

गहन विचार दृष्टि से देखा जाए तो सच्चा बोध तो यही है कि आत्मा का न तो बंधन है और न मोक्ष; क्योंकि आत्मा तो स्वभाव से ही नित्य और चिद्द स्वरूप है। यह विश्वास कि विश्व मुझ मुझ में स्थित नहीं है । मैं इन सबसे अलग निर्लिप्त स्थित है, एक निराधार भ्रांति है। यह भी हूँ ॥१८॥

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सशरीरमिदं विश्वं न किञ्चिदिति निश्चितम्।
शब्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मि कल्पनाधुना ॥ १९॥

शरीर सहित जो सम्पूर्ण जगत दृश्यमान प्रतीत होता है, वह कुछ नहीं है, सब केवल ब्रह्म रूप है। आत्मा माया रूपी मल से सर्वथा रहित, निर्मल चिद् स्वरूप है। जैसे अन्धकारवश रज्जु में सर्प की कल्पना हो जाती है, वैसे ही ब्रह्म में द्वैत (प्रपंच) की केवल अज्ञानवश कल्पना हो जाती है ॥१६॥

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शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।
कल्पनामात्रमेवैतत्किंमे कार्येचिदात्मनः ॥२०॥

जनक जी आगे कहते हैं कि शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष, भय आदि सब कल्पनामात्र हैं। इनमें कुछ भी वास्तविक नहीं है। ब्रह्म के सत्य स्वरूप को जाननेवाले ब्रह्मज्ञानी के लिए इन दृश्यमान या कल्पनात्मक नाना रूप पदार्थों या स्थितियों का कोई भी अस्तित्व नहीं है ।॥२०॥

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अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।
अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम् ॥२१॥

मैं जन समूह में रहता हूँ, किन्तु मुझे यह एक सघन वन-सा ही प्रतीत होता है । इसमें भी अनेकता दिखाई नहीं देती। ऐसी स्थिति में यह मिथ्याभूत संसार में कैसे प्रीति कर सकता हूँ? (अज्ञानी ही मिथ्या पदार्थों से प्रीति करते हैं। यही ज्ञानी और अज्ञानी का भेद है) ॥२१॥

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नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् ।
अयमेव ही मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा ॥ २२॥

न मैं देह हूँ, न ही (देही) हूँ; न मैं चित्त हूँ न जीव हूँ। फिर भी, जीवन की इच्छा होती है; यही बंधन का कारण है। जीने की इच्छा के कारण ही उसे कर्म-बन्धन निभाना पड़ता है। सच्चिदानंद स्वरूप आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाने पर जीवन में मोह नहीं रहता । (जीने-मरने की इच्छा आदि अन्तःकाल के धर्म हैं, असंग चैतन्य स्वरूप आत्मा के नहीं) ॥२२॥

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अहो भुवनकल्लोल्लौर्विचित्रैद्द्राक्समुत्थितम्।
मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तावाते समुद्यते ॥ २३॥

जब आत्मा के सच्चे स्वरूप का ज्ञान होता है, तब वह कह उठता है - मैं चैतन्य स्वरूप महा समुद्र हूँ। मुझमें ही ब्रह्मांड रूपी तरंगे उत्पन्न होती हैं। जिस प्रकार तरंगे समुद्र से भिन्न नहीं होती, ऐसे ही ब्रह्मांड मुझसे भिन्न नहीं है ॥२३॥

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मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति।
अभाग्याज्जीववणिजो जगत्योतो विनश्वरः ॥२४॥

मेरे संकल्प-विकल्पात्मक ज्ञान रूप वायु के शान्त होने पर जीव रूपी वणिक की भाग्य रूपी नौका भी शान्त हो जाती है। उसके शान्त या समाप्त होने पर संसार-समुद्र की सब नौकाओं की भी गति भी रुक जाती है। जब मन रूपी पवन नहीं रहता, तो नौकाओं में भी गति भला कैसे होगी ॥२४॥

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मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्य जीववीचयः ।
उद्यन्तिहनन्ति खेलन्ति प्रविशति स्वभावतः ॥२५॥

जनक जी कहते हैं कि आश्चर्य है, मेरे निर्विकल्प चैतन्य समुद्र में जीव रूपी तरंगें क्यों पैदा होती हैं? ये तरंगें उठती हैं पर स्वर टकराती हैं, खेलती हैं और अन्त में मुझमें ही खो जाती हैं, यही ब्रह्म ज्ञान है। (शरीरस्थ आत्मा की भी न उत्पत्ति होती है और न नाश होता है। ज्ञानवान को बोधितानुवृत्ति के कारण जगत की प्रतीति भी होती है, तब भी उसकी कोई हानि नहीं) ॥ 2५॥




Credit - Ashtavakra Gita in Hindi by Dipak Chauhan

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